भारत में पिछले 14 महीनों में एक अदृश्य दुश्मन ने दो लाख से अधिक लोगों को मार डाला है और दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था को बेबस कर दिया है.
महामारी ने सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को बेदम कर दिया है. लोग भयभीत और असुरक्षित हैं, ये राष्ट्र की सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण और गंभीर मामला है, क्योंकि ये शत्रु अब भी हर रोज़ घातक हमले किए जा रहा है.
भारत के पाकिस्तान के साथ तीन बड़े युद्ध हुए और चीन के साथ एक. पिछले दो दशकों में भारत पर कई घातक चरमपंथी हमले हुए जिनमें सैकड़ों देशवासियों की जानें गईं.
अब तक हुए छोटे-बड़े सभी युद्धों और चरमपंथी हमलों को मिलाकर भी इतने लोग नहीं मरे या अर्थव्यवस्था को इतनी क्षति नहीं पहुंची जितनी इस अदृश्य दुश्मन से पहुँच रही है और गंभीर बात ये है कि यह सब कुछ अभी थमा नहीं है.
ज़रा ग़ौर कीजिये, साल 2020-21 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का बजट तकरीबन 65 हज़ार करोड़ रुपए था, जबकि रक्षा का बजट चार लाख 71 हज़ार करोड़ रुपये से थोड़ा ज़्यादा.
रक्षा मंत्रालय का आवंटन केंद्र सरकार के सभी मंत्रालयों में सबसे अधिक है. रक्षा पर ख़र्च केंद्र सरकार के बजट का 15.5 प्रतिशत है, जो स्वास्थ्य में 2 प्रतिशत से तकरीबन साढ़े सात गुना ज़्यादा है.
पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया, देश के स्वास्थ्य के क्षेत्र में रिसर्च और नीतिगत मामलों में काम करने वाली एक बड़ी संस्था है, जिसके अध्यक्ष प्रोफ़सर के. श्रीनाथ रेड्डी ने बीबीसी से बातचीत में कहा, ”देश में स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की अनदेखी कई दशकों से की जा रही है.”
क्या प्राथमिकता बदलने की ज़रूरत है?
भारत रक्षा पर सबसे अधिक ख़र्च करने वाला दुनिया का तीसरे नबंर का देश है. इसके बावजूद चीन के साथ सीमा पर हुई झड़प के अलावा हम एक शांतिपूर्ण समय से गुज़र रहे हैं.
इसके विपरीत स्वास्थ्य संकट की वजह से बहुत अधिक लोगों की मृत्यु हुई है. तो क्या नेताओं और देश की नीति बनाने वालों को प्राथमिकताएं बदलनी होंगी, क्या उनके सोचने का तरीक़ा बदलना होगा?
विशेषज्ञ कहते हैं कि जिस तरह से देश की सीमा सुरक्षा और उसकी अखंडता को सरकारें गंभीरता से लेती हैं, उसी तरह से इन्हें स्वास्थ्य को भी सुरक्षा के दृष्टिकोण से गंभीरता से लेना चाहिए.
अमेश अदलजा संक्रामक रोग और स्वास्थ्य सुरक्षा के एक विशेषज्ञ हैं और अमेरिका के प्रसिद्ध जॉन्स हॉपकिंस विश्वविद्यालय के स्वास्थ्य सुरक्षा केंद्र से जुड़े हैं.
बीबीसी से बातचीत में वो कहते हैं कि स्वास्थ्य सुरक्षा किसी भी देश की प्राथमिकता होनी चाहिए, ”आपको पब्लिक हेल्थ के कुछ मुख्य हिस्सों को राष्ट्रीय सुरक्षा की श्रेणी में लेना पड़ेगा और इन हिस्सों को उसी तरह से लगातार फंड करना पड़ेगा जैसा कि आप अपने सैन्य सुरक्षा या राष्ट्रीय सुरक्षा को लगातार बड़े बजट देते हैं.”
प्रोफसर श्रीनाथ रेड्डी इस बात से सहमत हैं कि स्वास्थ्य को राष्ट्रीय सुरक्षा की तरह से लेना चाहिए.
वो कहते हैं, “अमेरिका में स्वास्थ्य सुरक्षा को सीमित रूप से देखा गया, जिसमें विदेश से बायोलॉजिकल ख़तरे इत्यादि की बातें की गईं. लेकिन भारत में स्वास्थ्य सुरक्षा का मतलब सबके लिए स्वास्थ्य की सुरक्षा होनी चाहिए, अगर स्वास्थ्य सुरक्षा सबके लिए नहीं हुई तो कोरोना वायरस जैसी महामारी केले के छिलके की तरह होगी जिस पर हम फिसलते रहेंगे, हमारी अर्थव्यवस्था गिरती रहेगी. अगर आपकी अर्थव्यवस्था की विकास दर 10-15 प्रतिशत भी है तो स्वास्थ्य आपातकाल की सूरत में ये तहस-नहस हो सकती है.”
प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली ध्वस्त है
ग्लोबल हेल्थ सिक्योरिटी इंडेक्स प्रकोप को रोकने, पता लगाने, रिपोर्ट करने और इस पर अमल करने की अपनी क्षमता के आधार पर देशों की रैंकिंग करता है. इस संस्था ने भारत को 195 देशों में 57वां स्थान दिया है. भारत की हेल्थकेयर एक्सेस की रैंकिंग 149 रही और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर्याप्तता 124 वें स्थान पर.
ये रैंकिंग महामारी के शुरू होने से थोड़ा पहले आई थी. पिछले साल महामारी की पहली लहर और इस साल शुरू हुई इसकी दूसरी लहर ने इस सच को ज़ाहिर कर दिया है कि देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली नाकाम और नाकाफ़ी है.
21वीं शताब्दी के भारत में अस्पतालों में ऑक्सीजन और बेड की कमी से लोग दम तोड़ दें ये इस बात को दर्शाता है कि, जैसा कि प्रोफसर रेड्डी ने कहा, सालों से स्वास्थ्य के क्षेत्र की अनदेखी की गई है.
विशेषज्ञ कहते हैं कि इस रैंकिंग से ये संकेत मिलता है कि भारत अपने मौजूदा बुनियादी ढांचे और स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के साथ महामारी से लड़ने के लिए तैयार नहीं है.
स्वास्थ्य प्रणाली में कमियां शहरी इलाक़ों में भी हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में भी. ख़ासतौर से प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली ध्वस्त नज़र आती है. मसलन, छत्तीसगढ़ को लें, जो इस समय महामारी की दूसरी लहर की चपेट में है.
राज्य में विशेषज्ञ चिकित्सकों के 1596 पद स्वीकृत हैं, जिनमें से 1359 पद खाली हैं. स्टाफ नर्स के 5329 स्वीकृत पदों में से 1895 खाली हैं. टेक्नीशियन के 1436 में से 989 पद खाली हैं. राज्य में पोस्ट ज़रूरत के हिसाब से पहले से ही कम हैं और उस पर से उनमें से ज़्यादातर पद ख़ाली हैं.
राज्य के सीनियर पत्रकार आलोक पुतुल महामारी पर लगातार रिपोर्टिंग कर रहे हैं. वो बताते हैं कि राज्य के मेडिकल कॉलेजों की हालत भी ठीक नहीं है.
वो बताते हैं, “बिलासपुर, राजनंदगांव और अंबिकापुर मेडिकल कॉलेज में तो विशेषज्ञ चिकित्सक का पद ही स्वीकृत नहीं हैं. रायपुर के चिकित्सा महाविद्यालय अंबेडकर अस्पताल में विशेषज्ञ चिकित्सक के स्वीकृत पद 24 हैं, जिनमें से 7 खाली हैं. स्टाफ नर्स के 556 पद हैं, जिनमें 196 खाली हैं. टेक्निशियन के 85 स्वीकृत पदों में से 34 खाली हैं. जगदलपुर के चिकित्सा महाविद्यालय और चिकित्सालय में विशेषज्ञ चिकित्सक के आठ पद हैं, सभी के सभी खाली हैं. स्टाफ नर्स के 279 स्वीकृत पद में से 116 खाली हैं. टेक्निशियन के 19 स्वीकृत पदों में से 13 खाली हैं.”
अगली महामारी से लड़ने को भारत तैयार?
ऐसे में 135 करोड़ लोगों का देश कोरोना की अगली लहर या किसी नई महामारी से निपट सकेगा? भ्रमर मुखर्जी अमेरिका के मिशिगन विश्वविद्यालय में ग्लोबल पब्लिक हेल्थ की प्रोफेसर हैं और एक जानी-मानी महामारी विज्ञानी हैं.
वो पिछले साल मार्च से ही भारत में कोरोना महामारी पर रिसर्च कर रही हैं. उनका काम लगभग वैसा ही है जैसा कि एक मौसम वैज्ञानिक का होता है जो डेटा की मदद से मौसम की भविष्यवाणी करते हैं.
भ्रमर मुखर्जी ने कोरोना की दूसरी लहर की भविष्यवाणी पहले ही कर दी थी जो सही साबित हुई. अब उनका कहना है कि दूसरी लहर अपने चरम पर मई के पहले से दूसरे हफ़्ते में होगी जिसमें रोज़ाना कोरोना से 4500 मौतें हो सकती हैं और आठ लाख तक लोग रोज़ संक्रमित हो सकते हैं.
मैंने उनसे पूछा कि इससे जनता में पैनिक नहीं फैलेगा? इसके जवाब में उन्होंने कहा, “वर्तमान में भारत में जितने लोग बीमार हो रहे हैं और कोरोना के लक्षणों का अनुभव कर रहे हैं, वह अचरज भरा और दिमाग चकरा देने वाला है, अगर आप रोज 3.5 लाख संक्रमण देख रहे हैं तो इसमें कोई संदेह नहीं कि यह संख्या दो-तीन हफ्तों में दोगुनी हो जाए. और ये प्रोजेक्शन सरकारी आंकड़ों पर आधारित है. यह कम आकलन है.”
आज कई विशेषज्ञ कह रहे हैं कि ”हम महामारी के युग में प्रवेश कर चुके हैं.”
कोरोना महामारी की शुरू होने की तारीख़ तो हम जानते हैं लेकिन ये महामारी कब ख़त्म होगी ये कोई विशेषज्ञ नहीं बता सकता, इसके अलावा कोरोना वायरस के वैरिएंट्स भी आ रहे हैं, इसकी तीसरी और चौथी लहर भी आ सकती है. विशेषज्ञ आगाह करते हैं कि इन सब से बढ़कर कोरोना की जगह कोई दूसरी महामारी भी आ सकती है.
लेकिन अमेश अदलजा कहते हैं कि अगली महामारी से निपटने के लिए किसी देश की तैयारी नहीं है.
वो कहते हैं, “अगली महामारी के लिए कोई देश तैयार नहीं है. ये महामारी (कोरोना) पूरी दुनिया के लिए एक वेकअप कॉल होना चाहिए. इसे सभी देश एक राष्ट्रीय ख़तरे की तरह से लें और स्वास्थ्य प्रणाली को प्राथमिकता दें. हमने देखा है कि कोरोना से कोई देश ठीक से निपट नहीं पाया, ताइवान को छोड़ कर. आप कल्पना करें कि इससे भी भयानक महामारी आई तो ये और भी जानलेवा और ख़तरनाक साबित होगी, तो यथास्थिति नहीं चलेगी, देशों को स्वास्थ्य प्रणाली को मज़बूत करना ही पड़ेगा.”
भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय के अंतर्गत डॉ सुजीत कुमार सिंह की अध्यक्षता में नेशनल सेंटर फॉर डिज़ीज़ कंट्रोल का काम देश में रोगों को नियंत्रण में लाने की ज़िम्मेदारी है. ये विभाग ‘एकीकृत रोग निगरानी’ प्रोग्राम पर काम कर रहा है.
इसके अलावा फाइनेंस कमीशन की 2019 की रिपोर्ट में महामारी से निपटने के तरीके और बीमारियों की रोकथाम के लिए क़दम और स्वास्थ्य प्रणाली को चुस्त बनाने पर कई सुझाव दिए गए हैं, जैसा कि प्रोफेसर रेड्डी कहते हैं. लेकिन उनका कहना था कि सुझाव को अमल में लाने की ज़रूरत है.
मैंने अधिक जानकारी के लिए डॉ सुजीत कुमार सिंह से संपर्क किया, स्वास्थ्य मंत्रालय को फ़ोन किया और चेन्नई में स्वास्थ्य मंत्रालय के महामारी विज्ञान के केंद्र को ईमेल किया लेकिन कोई जवाब नहीं आया.
केंद्र सरकार के लोग बात करने से क्यों कतरा रहे हैं इसका जवाब वही दे सकते हैं लेकिन उनके बात न करने से सरकार की नीतियों और योजनाओं का सही से अंदाज़ा नहीं होता है.
वायरस कब जाएगा किसी को नहीं पता?
प्रोफेसर रेड्डी का कहना है कि हमें नहीं मालूम कि ये महामारी कब ख़त्म होगी लेकिन हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि ये थोड़े-थोड़े समय पर दोबारा से न उभरे, वो ये भी कहते हैं कि केवल कोरोना की तीसरी लहर के बारे में ही चिंता क्यों की जा रही है.
वे कहते हैं, “आपको एक नए वायरस के आने की भी चिंता होनी चाहिए इसलिए आप अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली को इस तरह से तैयार करें कि ये सही से किसी भी स्वास्थ्य आपातकाल से निपट सकें”.
उन्होंने इस सिलसिले में एक प्रणाली बनाने पर ज़ोर दिया जो सभी तरह के रोगों का ध्यान रखे.
वो कहते हैं, “वायरस किन लोगों की जान ले रहा है? वो लोग जो बूढ़े हैं या जिन्हें डायबिटीज, दिल का मर्ज़ या श्वास प्रणाली की समस्याएँ हैं या फिर वो बूढ़े भी हैं और इन्हें इनमें से कोई मर्ज़ भी है. अगर आपकी स्वास्थ्य प्रणाली इनमें से आधे लोगों की अनदेखी कर देती है तो और इनका इलाज नहीं होता है तो आप कैसे मैनेज करेंगे.”
कोरोना महामारी एक वैश्विक महामारी है और 1918 की महामारी के बाद सबसे बड़ी और जानलेवा महामारी है जिसमें जान और माल की तबाही ने दुनिया भर को हिला कर रख दिया है.
संक्रामक रोग और स्वास्थ्य सुरक्षा के एक विशेषज्ञ अमेश अदलजा कहते हैं, “यह एक पूर्वानुमानित महामारी है, कई देशों को पता था कि क्या हो सकता है लेकिन किसी तरह वे कार्रवाई करने में विफल रहे. किसी तरह वे चीन या इटली या स्पेन से सबक़ नहीं ले सके.”
महामारी विज्ञान पर कितना भरोसा करें
सोशल मीडिया पर कई लोग कह रहे हैं कि महामारी विज्ञान पर काम करने वाले जनता के बीच पैनिक फैलाने की कोशिश कर रहे हैं.
इस पर प्रोफसर मुखर्जी कहती हैं, “हमेशा ऐसे लोग होंगे जो विज्ञान और वैज्ञानिकों के बारे में शिकायत करेंगे, हम मार्च 2020 से इस महामारी पर नज़र रख रहे हैं, हमें अंदाज़ा था कि दूसरी लहर या तीसरी लहर आ सकती है. हमारे कोड और मॉडल स्पष्ट रूप से उपलब्ध हैं और मैं उन कोड की समीक्षा करने के लिए किसी को भी आमंत्रित करती हूँ. हम लगातार काम कर रहे हैं. हमने अपने निष्कर्ष जल्दबाज़ी में नहीं निकाले इसलिए मुझे इन मॉडलों पर भरोसा है. हमारे काम से सरकारें और संस्थाएं लाभ उठा रही हैं.”
भारत में इस बात पर चिंता है कि सरकारी आंकड़ें ज़मीनी सच को सही से नहीं दर्शाते, तो डेटा मॉडल आगे के बारे में शायद ही सही अनुमान लगा पाएँगे.
इस पर अमेरिका की वर्जीनिया यूनिवर्सिटी के भारतीय मूल के महामारी विज्ञान के प्रोफ़ेसर माधव मराठे कहते हैं, “मॉडल्स तो हम बना लेते हैं. लेकिन अगर आपके पास डेटा सही नहीं हो तो आप मॉडल जितना भी अच्छा बनाएँ उसका कोई लाभ नहीं है.”
अपनी भविष्यवाणी पर और महामारी विज्ञान पर सफ़ाई देते हुए प्रोफसर मुख़र्जी कहती हैं, “हमारा मॉडल अनुमान लगाता है, हम उम्मीद करते हैं कि ये सच न हों, हम चाहते हैं कि इन अनुमानों को जनता और नीति-निर्माता गंभीरता से लें, ताकि सरकार सही क़दम उठाए, जिनमें बड़ी सभाओं को रोकना, सोशल डिस्टेन्सिंग करना, मास्क पहनना और संभवतः क्षेत्रीय लॉकडाउन लगाना जैसे क़दम उठाए जा सकें”.
प्रोफ़ेसर माधव मराठे कहते हैं कि महामारी विज्ञान का मक़सद ये होता है कि पॉलिसी बनाने वालों और सरकारों को वो मदद मिले. लेकिन जब तक सरकारें आम जनता में ये पैग़ाम न दें कि वो विज्ञान पर भरोसा करें, आप कोई भी क़दम उठाएँ उसका अधिक फायदा नहीं होगा.
प्रोफ़ेसर मराठे कहते हैं कि भारत जैसे देशों में स्वास्थ्य प्रणाली को सही करने में लंबा समय लग सकता है और समय ही एक ऐसी चीज़ है जो नेताओं और सरकारों के पास नहीं है. विशेषज्ञ कहते हैं एक सरकार पांच साल के लिए आती है और उसकी योजनाएं भी अक्सर इसी अवधि की होती हैं.
इसका उपाय जॉन्स हॉपकिंस यूनिवर्सिटी के अमेश अदलजा के पास है, “मुझे लगता है कि होना ये चाहिए कि वो नेता जो छोटी अवधि के लिए सोचते हैं, वो नेता जो छोटी सोच रखते हैं, उनके पास भविष्य के लिए नीति नहीं है, जो केवल सत्ता की परवाह करते हैं, जनता को उन्हें पहचानना चाहिए और उन्हें वोट नहीं देना चाहिए.”