सामान्य आदमी संसार के प्रवाह के साथ बहता है, अनुस्रोतगामी होता है, परंतु जिसको कुछ होना है, कुछ बनना है, आध्यात्मिक साधना का प्रयोग करना है, उसे प्रतिस्रोतगामी बनना होगा, प्रवाह का सामना करना होगा.
तभी वह अमोह की, अध्यात्म की साधना कर सकेगा. गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी व्यक्ति साधना करे, अभ्यास करे, तो अमोह की दिशा में वह निश्चय आगे बढ़ सकता है, विकास कर सकता है.
संसार का न आदि है और न ही अंत
हर प्राणी संसार में जीता है. इस संसार की न आदि है और न ही अंत. इसकी परंपरा आगे से आगे परंपरित हो रही है. प्रश्न हो सकता है कि संसार की परंपरा को, जन्म-मरण की परंपरा को चलाने वाला कौन है? आदमी केवल ऊपर को देखता है. मूल को देखे बिना समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकता. मूल को पकड़ना चाहिए. आचारांग सूत्र में कहा गया-‘अग्गं च मूलं च विगिच धीरे।’ आदमी अग्र को भी देखे और मूल को भी देखे. मूल को देखने पर पता चलता है कि इस संसार को चलाने वाला तत्व है-मोह. अगर मोह न रहे तो संसार का चलना भी असंभव हो जाये. जब तक मोह है तब तक संसार है. मोक्ष एक सच्चाई है, तो संसार भी एक सच्चाई है. अनंत जीव मोक्ष चले गये, अनंत चले जायेंगे, उसके बाद भी अनंत-अनंत जीव संसार में बने रहेंगे. साधना के लिए उन्मुख व्यक्ति को इस बात पर विचार करना चाहिए कि मुझे मोहविजय की साधना करनी है. यदि मोहविजय नहीं हुआ, तो साधना की निष्पत्ति नहीं आ सकती.
‘काचं मणिं कंचनमेकसूत्रे, ग्रथ्नासि बाले!
जैन सिद्धांत के अनुसार, कोई जीव ऐसा नहीं है, जिसके कुछ अंशों में मोह का विलय न हो, ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम न हो. विपरीत बातें भी साथ-साथ रह सकती हैं. आत्मा में ज्ञान है, तो अज्ञान भी है. शक्ति है, तो शक्तिहीनता भी है. अनेक चीजें एक साथ रह सकती हैं. एक बालिका हार पिरो रही थी. उसके सामने कांच के टुकड़े, स्वर्ण-खंड और मणियां पड़ी थीं. वह तीनों को एक साथ पिरो रही थी. उसके सामने से एक विद्वान व्यक्ति निकला. वह बालिका के इस कृत्य को देखकर कहने लगा-‘काचं मणिं कंचनमेकसूत्रे, ग्रथ्नासि बाले! तव को विवेकः।’ बालिके! यह तुम्हारा कैसा विवेक है, जो इन तीनों को एक साथ पिरो रही हो? बालिका भी बड़ी तेज थी, विदुषी थी, संस्कृत व्याकरण को जानने वाली थी, उसने कहा-‘पंडित महोदय! मैंने कौन-सा गलत काम कर दिया? कौन-सा अपराध कर दिया? संस्कृत के महान व्याकरणाचार्य पाणिनि ने भी एक सूत्र में तीन चीजों को पिरोया है. ‘महामतिः पाणिनिरेकसूत्रे श्वानं युवानं मद्यवानमाह।।’ तीन चीजें कौन-सी? कुत्ता, युवा और इंद्र. कहां मेल बैठता है इन तीनों में? जब पाणिनि जैसे महान पंडित ने भी इन तीनों को एक सूत्र में पिरोया है, तो मैंने कांच, मणि और स्वर्ण को एक सूत्र में पिरोकर कौन-सा गलत काम कर दिया.
मोहात्मक चेतना भी है और अमोहात्मक चेतना
इस दुनिया का यह नियम है कि इसमें विपरीत धर्मों वाली अनेक चीजें एक साथ रह सकती हैं. आदमी के भीतर मोहात्मक चेतना भी है और अमोहात्मक चेतना भी है. आदमी निरंतर जागरूक रहे कि मुझे अमोह की साधना में आगे बढ़ना है. साधना करने में माध्यम बनता है-हमारा शरीर. इस शरीर के द्वारा धर्म की आराधना भी की जा सकती है, ध्यान की साधना भी की जा सकती है, स्वाध्याय भी किया जा सकता है, तपस्या भी की जा सकती है, तो इस शरीर से अधर्म भी किया जा सकता है, हिंसा भी की जा सकती है, झूठ भी बोला जा सकता है और भी अनेक पापाचरण किये जा सकते हैं. शरीर तो एक माध्यम है. इसका उपयोग कहां, किस रूप में किया जाये, यह व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करता है. व्यक्ति इस बात पर ध्यान दे कि ”जब तक मेरा शरीर सक्षम है, तब तक मैं अधिक-से-अधिक साधना कर लूं.” शरीर की अक्षमता के बाद साधना करने में कठिनाई उत्पन्न हो सकती है. दसवेआलिया में कहा गया-
जरा जाव न पीलेइ, वाही जाव न वड्ढइ।
जाविंदिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे।।
धर्म का आचरण कर लेना चाहिए
जब तक बुढ़ापा पीड़ित न करे, व्याधि न बढ़े और इंद्रियां क्षीण न हों, तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिए. हालांकि धर्म तो हर स्थिति में करणीय है, किंतु साधना के विशेष प्रयोग करने हों, कठोर साधना करनी हो तो शरीर की सक्षमता भी आवश्यक होती है. विशेष साधना के लिए शरीर का भी विशेष होना जरूरी माना गया है. केवलज्ञान की प्राप्ति हर किसी व्यक्ति को नहीं हो सकती. अन्य बातों के साथ शरीर मजबूत भी होना चाहिए, पूर्णतः सक्षम होना चाहिए, तभी कैवल्य की उपलब्धि हो सकती है. जब वृद्धावस्था आ जाती है, शरीर अक्षम बन जाता है, आंख, कान, नाक, हाथ, पैर आदि जवाब दे देते हैं, फिर विशेष साधना तो दूर, सामान्य साधना भी सम्यक् प्रकार से नहीं हो सकती.
मोह का संबंध स्वार्थ
मोह का अधिक संबंध स्वार्थ के साथ होता है. यदि स्वार्थ नहीं है, तो कई बार मोह भी नहीं होता है. मोह के अभाव में परिवार, समाज और देश का सामाजिक विकास अवरुद्ध हो सकता है. आपसी रिश्ते बिखर सकते हैं. एक बहन संतों के पास दर्शनार्थ आयी. संतों ने कहा- बहन! बच्चों से ज्यादा मोह मत किया करो. बहन ने जो उत्तर दिया, उसमें यथार्थ था. उसने कहा-मुनिश्री! मोह के बिना बच्चे पलते ही नहीं हैं. बच्चे को जब मां की ममता मिलती है तभी उसका विकास होता है. व्यवहार के धरातल पर जहां मोह भी कहीं-कहीं अनिवार्य हो जाता है, वहीं अध्यात्म के धरातल पर मोहातीत चेतना का, संबंधातीत चेतना का विकास आवश्यक माना गया है.
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भी मूढ़ बन गये
रामचरित्रमानस में बताया गया कि जब लक्ष्मण का देहावसान हो गया, तब मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम अपने अनुज के मोह में इतने विह्वल हो गये कि छह माह तक भाई के शव को अपने कंधों पर लिये घूमते रहे. वे मानते थे कि लक्ष्मण अभी भी जीवित है. इस भ्रांति से कभी लक्ष्मण को सहलाते, तो कभी खिलाते. कभी वैद्य को बुलाते. वैद्य तो जानते थे कि लक्ष्मण मर चुका है, अब किसे ठीक करें? किंतु श्रीराम यह मानने को तैयार नहीं थे. कहते हैं, जब देवों ने देखा कि राम जैसे महापुरुष भी मूढ़ बन गये हैं, मोहाक्रांत हो गये हैं तब वे आदमी का रूप लेकर श्रीराम के सामने आये और पत्थर पर कमल उगाने का प्रयास करने लगे. राम ने जब यह दृश्य देखा तो कहने लगे- आप ये कैसा प्रयास कर रहे हैं? पत्थर पर कमल कैसे उगेगा? देवों ने कहा- लक्ष्मण मर चुका है. मृत व्यक्ति पुनः जीवित कैसे हो सकता है? इस प्रकार देवों ने भी श्रीराम के मोहावरण को दूर करने का प्रयास किया.
मोह को विफल करने का सशक्त उपाय
मोह को विफल करने का सशक्त उपाय है-अमोह की साधना. जैसे-जैसे अमोह की चेतना जागती है, मोह दूर होता चला जाता है. साधना के द्वारा, अभ्यास के द्वारा, ध्यान के द्वारा मोह पर विजय पायी जा सकती है और अपनी आत्मा को वीतरागता की दिशा में आगे बढ़ाया जा सकता है.