प्रत्येक 3 वर्ष के बाद अधिकमास रहता है, जिसे पुरुषोत्तम मास भी कहते हैं। यूं तो वर्ष में 24 एकादशियां होती हैं परंतु अधिकमास की 2 एकादशियां जुड़ जाने के कार प्रति 3 वर्ष में 26 एकादशियां होती हैं।
अधिकमास में परम एकादशी और पद्मिनी एकादशी का व्रत रखे जाने का बहुत महत्व है क्योंकि यह तीन वर्ष बाद ही आती है। आओ जानते हैं इन दोनों एकादशियों की पौराणिक कथा।
पद्मिनी एकादशी व्रत कथा | padmini ekadashi vrat katha:-
यह त्रेता युग की बात है कि राजा कीतृवीर्य की कई रानियां थीं, परंतु उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति नहीं हो रही थी। संतानहीन होने के कारण राजा और राटियां बहुत दुखी रहते थे। फिर एक दिन संतान की कामना से राज अपनी रानियों के साथ जंगल में तपस्या करने निकल गए। कहते हैं कि तपस्या करने से राजा की हड्डियां ही शेष रह गयी परंतु तपस्या का कोई परिणाम नहीं निकला। तब रानी ने अनुसूया मां से इसका उपाय पूछा।
माता अनुसूया ने रानियों से अधिकमास में शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करने के लिए कहा। रानी ने पद्मिनी एकादशी का व्रत रखा। व्रत की समाप्ति पर भगवान प्रकट हुए और वरदान मांगने के लिए कहा। रानी ने भगवान से कहा कि हे प्रभु! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरे बदले मेरे पति को वरदान दीजिये। तब भगवान ने राजा से वरदान मांगने के लिए कहा। राजा ने प्रमाण करने के बाद कहा कि आप मुझे ऐसा पुत्र प्रदान करें जो सर्वगुण सम्पन्न हो, आपके अतिरिक्त किसी से पराजित न हो और जो तीनों लोकों में आदरणीय हो। यह सुनकर भगवान ने कहा तथास्तु!
कुछ समय पश्चात रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया जो कार्तवीर्य अर्जुन के नाम से जाना गया। कालान्तर में यह बालक अत्यंत पराक्रमी राजा हुआ जिसने रावण को भी बंदी बना लिया था। इसकी तीनों लोकों में कीर्ति हो चली थी। बाद में इसे श्रीहरि विष्णु के ही अवतार परशुरामजी ने इसका वध किया था।
परमा एकादशी व्रत कथा | Parama ekadashi vrat katha:-
पुरातन काल में काम्पिल्य नगर में सुमेधा नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसकी स्त्री का नाम पवित्रा था, जो नाम के अनुरूप ही सती और साध्वी थी। परंतु दोनों ही बहुत ही गरीब थे। हालांकि वे बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे और सदा अतिथियों की सेवा में तत्पर रहते थे।
एक दिन निर्धनता से दुखी होकर ब्राह्मण ने दूर देश में जाने का विचार किया, परंतु उसकी पत्नी ने कहा- ‘स्वामी धन और संतान पूर्वजन्म के दान और पुण्य से ही प्राप्त होते हैं, अत: इस बात की चिंता न करें और सभी प्रभु पर छोड़ दें।’
फिर एक दिन महर्षि कौडिन्य उनके घर पधारे। दोनों ब्राह्मण दंपति ने यथाशक्ति तन-मन से उनकी सेवा की। महर्षि ने उनकी गरीब दशा देखकर उन्होंने कहा- ‘दरिद्रता को दूर करने का बहुत ही सरल उपाय यह है कि तुम दोनों मिलकर अधिकमास में कृष्ण पक्ष की एकादशी का व्रत तथा पंच रात्रि जागरण करो। इस एकादशी का व्रत करने से यक्षराज कुबेर तुम्हें धनाधीश बना है, क्योंकि इसी से हरिशचंद्र राजा हुए हैं।’
ऐसा कहकर महर्षि कौडिन्य चले गए। इसके बाद सुमेधा और उनकी पत्नी पवित्रा ने यह व्रत विधिवत रूप से किया। इसके बाद प्रात:काल कहीं से एक राजकुमार अश्व पर चढ़कर आया और उसने इन दोनों धर्मपरायण एवं व्रती दंपत्ति को देखा, देखकर उसे बड़ी दया आई और उसने दोनों को सर्व साधन, संपन्न, सर्व सुख समृद्ध युक्त करके एक अच्छा भवन रहने को दिया। इस तरह दोनों के सभी दु:ख दूर हो गए।