भारतीय संस्कृति के ‘घट-घट में राम’..’हरि अनंत, हरि कथा अनंता…’ की तरह रचे-बसे हुए हैं.
हमारे पास धार्मिक ग्रंथों, साहित्यों, कथाओं, लोकोक्तियों, लोक संवाद आदि विभिन्न माध्यमों से हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन में साथ-साथ चलते हैं. बावजूद इसके विडंबना यह कि हम श्रीराम कथा जीवन के सिद्धांतों को अपने जीवन में नहीं उतार पाये हैं. रामायण के प्रति हमारे मन में अपार श्रद्धा-भक्ति है, लेकिन क्या हम उसका अपने जीवन में पालन कर पाते हैं? शायद नहीं, इसके लिए जरूरी है कि राम हमारे-आपके अंदर में जागे.
‘पहला पन्ना राम का दूसरा पन्ना काम का’
राम और राम कथा भारतीय संस्कृति और समाज के घट-घट में अपनी-अपनी सहजता और सरलता के साथ रची-बसी हुई है. हम भारतीय संस्कृति के लोग किसी नवागंतुक से मिलने पर अभिवादन स्वरूप राम-राम कहते हैं और उनसे विदा लेते वक्त भी राम-राम कहते हैं. किसी के लिए भोजन से तृप्त होकर विश्राम में राम-राम तो किसी के लिए शुभ कार्य शुरू करने से पहले राम-राम. बाल मन में भी ‘पहला पन्ना राम का दूसरा पन्ना काम का’ की शिक्षा दी जाती है. ऐसी और भी न जाने कितनी ही मधुर स्मृतियां है हम सबों के मन में अपने-अपने राम की. शायद इसीलिए कहा गया है- ‘घट-घट में राम’. तुलसीदास ने रामचरितमानस में कहा है- ”सबको जो दे विश्राम, वह हैं राम.”
सिर्फ कथा-कहानियों में नहीं हैं राम
रामायण केवल कथा नहीं है. न ही यह केवल सामर्थ्य की विजय-गाथा है. रामायण केवल जय-जयकार भी नहीं है. न केवल शबरी की कथा है और न ही रामायण केवल लक्ष्मण के भ्रातृत्व प्रेम की भावना ही है. रामायण केवल महात्मा गांधी के राम-राज्य वाली कपोल कल्पना भी नहीं है. न ही यह समाज के हर व्यक्ति या भावी पीढ़ी के लिए केवल आदर्श ही प्रस्तुत करता है. रामायण एक पूरी जीवनशैली है, जो इंसान को एक जिम्मेदार दृष्टिकोण प्रदान करती है. रामायण में स्वयं की बुराइयों पर जीत हासिल करने का और आज के जमाने में अपने व्यक्तित्व को लोकतांत्रिक बनाने का जीवन सूत्र भी शामिल है, जिसे हम सबको अपने जीवन में उतारने की आवश्यकता है.
रति महीधर हैं रघुनंदन राम
‘रति महीधर’ का मतलब है कि जहां अंधकार का वास न हो. हम कहते हैं न अंधेरे को दूर करना हो, तो दीया जलाओ, क्योंकि प्रकाश के तम में अंधकार टिक नहीं पाता. राम मानवीय विचार को गतिशील रखते हैं, इसलिए राम कथा की आलोचना समाज को गतिशील रखने के लिए होनी चाहिए. समाज के अंधेरे को प्रकाशमान करने के लिए होनी चाहिए. आलोचना अपने प्रकाश के तम में समाज के अंधकार को मिटा सकती है. राम कथा के मिथकीय पात्र समाज को रचनात्मक गति दे सकते हैं, इसलिए चाहे संत कबीर हों या गांधी, बुद्ध, महावीर, नानक या विवेकानंद… सबके सब रति महीधर की तरह राम कथा को हमें अपने जीवन चरित्र में उतारने का संदेश देते हैं.
जीवन प्रसन्नता में हैं राम
राम और रामकथा भले ही भारतीय संस्कृति के घट-घट में रची-बसी हुई है, लेकिन फिर भी हममें से अधिकांश लोग राम को अपने जीवन में उतार नहीं पाये हैं. न ही न राम कथा सुननेवाले श्रोता रामायण के जीवन मूल्य को साधना चाहते हैं, इसलिए घट-घट में रचे-बसे हुए राम, मानवीय जीवन को श्रेष्ठ नहीं बना पा रहे हैं. आज राम को राम भजन या रामत्व को मानवता विरोधी आचरण के विरुद्ध साधने की आवश्यकता है, जैसा राम-शबरी के साथ करते हैं, केवट के साथ करते हैं, विभीषण के साथ करते हैं, जटायु के साथ करते हैं और छोटी-सी गिलहरी के साथ करते हैं, आसुरी चरित्रवाले असुरों के साथ करते हैं.
भित्ति एवं तैलचित्रों में भी रामकथा प्रसंग
राम भारतीय संस्कृति में शिल्प में, मंदिरों और गुफाओं में भी दिखायी देते हैं. हंपी हो या एलोरा, सब जगह रामकथा अभिव्यक्त है. चित्रकला की बात करें, तो राजस्थानी बूंदी, कोटा, मिथिला, मंजूषा और मराठी चित्रकला में राम-सीता सबसे अधिक उकेरे जाते हैं. मुगल या मध्यकाल में विकसित दक्कन, राजपुर और पहाड़ी शैलियों में बने भित्ति एवं तैलचित्रों में भी रामकथा प्रसंग है. कांगड़ा, कुल्लू, बसोली, माडू, बुंदेली हर संस्कृति में राम जीवन की छाप है. राम मुद्रा का प्रचलन भी कई शासन काल में रहा है. यहीं नहीं, महात्मा गांधी का प्रसिद्ध भजन ‘रघुपति राघव राजा राम’ में भी राम धुन ही रची गयी है. कहने का तात्पर्य यह कि जब जीवन के घट-घट में राम का वास है, तो हमारे सामाजिक जीवन और चरित्र से राम अलग कैसे हो सकते हैं. हमें उसमें भी ‘राम’ को साकार करके रामराज्य के विस्तार की परिकल्पना को साकार करने की दिशा में अवश्य सोचना चाहिए.
किसके कितने अपने हैं राम
आज हम राम और राम कथा को लेकर भाषा, जाति और अमीर-गरीब के बीच विभाजित हो जाते हैं, जबकि राम और राम कथा में प्रजातांत्रिक दर्शन भी है, जिस पर ध्यान नहीं दिया जाता है. वनवास यात्रा में केवट को अपना बनाना, शबरी के जूठे बेर खाना क्या लोकतांत्रिक जीवन दर्शन का उदाहरण नहीं है? सीता की खोज में हनुमान, सुग्रीव, नल-नील, जटायु से सहयोग लेना, प्रजातंत्र में जनप्रतिनिधियों से सहयोग लेकर शासन-व्यवस्था चलाने का दर्शन नहीं है? आज आवश्यकता है राम और राम कथा के आलोचना से भी प्रजातांत्रिक गतिशीलता की तलाश की जाये और देश के लोकतांत्रिक व्यवस्था को गतिशील बनाया जाये. प्रजातंत्र या लोकतंत्र भी जनप्रतिनिधियों के सामने वैज्ञानिक आचार संहिता का विचार रखता है. फिर राम चरित्र या राम कथा को नैतिकता के आचार संहिता में पुनर्पाठ या पुनर्परिभाषित क्यों नहीं की जा सकती है? आवश्यकता त्याग के नियंत्रित भोग से राजनीतिक संस्कृति विकसित करने की है.