एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने बीते मंगलवार दिल्ली में कई क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं से मुलाक़ात की है. इस बैठक से ठीक पहले पवार प्रशांत किशोर से मिल रहे थे. पिछले कुछ दिनों में पवार लगभग तीन बार प्रशांत किशोर के साथ बैठक कर चुके हैं.
ऐसे में राजनीतिक विश्लेषक इस घटनाक्रम को बेहद उत्सुकता के साथ देख रहे थे. इस बात की संभावनाएं जताई जा रही थीं कि ममता बनर्जी की ऐतिहासिक जीत के बाद एक कारगर तीसरा मोर्चा खड़ा हो सकता है.
ममता बनर्जी स्वयं कई मौकों पर बीजेपी के ख़िलाफ़ एक साझा मंच बनाने की बात कर चुकी हैं. हाल ही में उन्होंने सोनिया गाँधी समेत कई पार्टियों को एक तीन पन्नों का पत्र लिखा था जिसमें एक फेडरल फ्रंट बनाने की बात की गयी थी. ममता बनर्जी के अलावा तेलंगाना राष्ट्र समिति के समिति के प्रमुख चंद्रशेखर राव भी फेडरल फ्रंट बनाने की दिशा में काम कर चुके हैं.
ऐसे में प्रशांत किशोर से बैठक के ठीक बाद शरद पवार की विपक्षी दलों के साथ बैठक को तीसरे मोर्चे से जोड़ा जाना सामान्य था. क्योंकि ममता बनर्जी के रूप में इस मोर्चे को एक ऐसा उम्मीदवार मिल गया है जिसने मोदी की मजबूत छवि और अमित शाह की रणनीति को मात दी है.
इस संदर्भ को ध्यान में रखते हुए इस मीटिंग को ध्यान से देखा जा रहा था. लेकिन मीटिंग के बाद एनसीपी नेता माजिद मेमन ने जिस तरह इसे राष्ट्र मंच की मीटिंग करार दिया और तमाम सवालों पर सफाई देते हुए दिखे, उससे कई सवाल खड़े हुए हैं.
एक सवाल ये है कि क्या तीसरे मोर्चे से जुड़ी सभी संभावनाएं अर्थहीन हैं? क्योंकि इस मीटिंग में समाजवादी पार्टी, टीएमसी और एनसी और राजद जैसे बड़े क्षेत्रीय दलों के मुख्य नेता नहीं पहुंचे. उन्होंने अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को भी नहीं भेजा.
संभवत: इसी वजह से मेमन इस मीटिंग और इसके परिणाम से अपने नेता शरद पवार को दूर करने की कोशिश करते हुए दिखे.
कांग्रेस के बिना तीसरा मोर्चा संभव?
इस बैठक में कांग्रेस पार्टी को औपचारिक रूप से न्योता नहीं दिया गया जबकि कांग्रेस के साथ एनसीपी महाराष्ट्र के साथ गठबंधन में है.
इस पूरे घटनाक्रम ने एक बड़ा सवाल खड़ा किया है कि क्या मौजूदा राजनीति में कांग्रेस पार्टी को शामिल किए बग़ैर कोई कारगर तीसरा मोर्चा बनाया जा सकता है.
लगभग तीन दशकों से राष्ट्रीय राजनीति को देख रहे वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश मानते हैं कि कांग्रेस चाहे अपने सबसे ख़राब स्वरूप में है लेकिन उसके बिना तीसरा मोर्चा संभव नहीं दिखता है.
वे कहते हैं, “मैं कांग्रेस की इस मुद्दे पर भरसक आलोचना करता हूं कि किस तरह वह एक निष्क्रिय विपक्ष बनी हुई है. लेकिन इसके बावजूद मेरा मानना है कि कांग्रेस विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है. उसकी पहुंच राष्ट्रव्यापी है. कई राज्यों जैसे राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश आदि में विपक्ष के रूप में कांग्रेस पुरजोर ढंग से मौजूद है. ऐसे में कांग्रेस के बिना किसी तरह के तीसरे मोर्चे की बात करना बेमानी है.”
इस मीटिंग में जावेद अख़्तर समेत सिविल सोसाइटी के तमाम लोग शामिल हुए. इसके साथ ही कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी और विवेक तन्खा जैसे कुछ कांग्रेस नेताओं को भी बुलाया गया था. लेकिन औपचारिक रूप से कांग्रेस पार्टी को न्योता नहीं दिया गया.
उर्मिलेश मीटिंग में बुलाए गए लोगों के चुनाव पर कहते हैं कि “ये जो लोग प्रशांत किशोर के निर्देशन में अपनी राजनीति कर रहे हैं, वे अपनी राजनीति की मट्टीपलीद कर रहे हैं क्योंकि प्रशांत किशोर एक चुनाव रणनीतिकार हो सकते हैं लेकिन वो ये नहीं बता सकते हैं कि मोर्चा किस तरह बनना चाहिए.”
राष्ट्रीय राजनीति को गहरायी से समझने वालीं वरिष्ठ पत्रकार राधिका रामाशेषन मानती हैं कि कांग्रेस को अलग रखकर किसी भी तरह का मोर्चा बनाने के बारे में नहीं सोचा जा सकता.
वे कहती हैं, “इस मीटिंग में कांग्रेस के जिन नेताओं को बुलाया गया था, उनमें से तीन सदस्य उसी जी23 समूह के सदस्य थे जिसने सोनिया गाँधी को नेतृत्व में परिवर्तन को लेकर पत्र लिखा था. लेकिन कांग्रेस को नहीं बुलाया गया. इस समय कांग्रेस का हाल जो भी है. लेकिन बीजेपी को छोड़कर सिर्फ एक पार्टी है जिसकी मौजूदगी सभी जगहों पर है. और उसके बिना कोई भी तीसरा मोर्चा बनाने की बात अजीब लगती है.”
राधिका अपने इस तर्क के पीछे की वजह को बताते हुए कहती हैं कि किसी भी मोर्चे को खड़ा करने में संसाधन और मानव श्रम लगता है.
जनता पार्टी और जनता दल के दिनों को याद करते हुए वे कहती हैं, “भारतीय राजनीति के इतिहास में दो बार ऐसे मौके आए हैं जब क्षेत्रीय दलों ने एक कामयाब विकल्प तैयार किया है. पहला मौका जनता पार्टी और दूसरा मौका जनता दल के समय का है. इन दोनों ही मौकों पर जनता पार्टी और जनता दल के रूप में क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस से टूटकर अलग हुए विरोधियों ने कामयाबी हासिल थी.
लेकिन दोनों बार इस मोर्चे में बीजेपी और आरएसएस शामिल थी. और दोनों की बेहद अहम भूमिका रही थी. क्योंकि इसके लिए संसाधन और लोगों की ज़रूरत पड़ती है. एक अभियान खड़ा करना पड़ता है. और मीटिंग में शामिल होने वाले दलों में मौजूदा सरकार के ख़िलाफ़ एक अभियान खड़ा करने की क्षमता नहीं दिखाई पड़ती. पवार साहब खुद भी कभी बीजेपी के करीब रहते हैं और कभी बीजेपी से दूरी बनाते दिखते हैं. मुझे अब तक उनका राजनीतिक रुख समझ नहीं आया.”
क्या ममता बनर्जी एक संभावना हैं?
शरद पवार के घर पर हुई इस बैठक को चाहें जो नाम दिया जाए लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि ममता बनर्जी के रूप में विपक्ष को मोदी का सामना करने के लिए एक अवसर मिला है.
राधिका कहती हैं, “मैं इसे बेहद गंभीरता से लेती, अगर इस बैठक में ममता बनर्जी शामिल होतीं. या उनकी पार्टी के बड़े नेता शामिल होते. लेकिन मैं ये ज़रूर मानती हूं कि ममता बनर्जी की उम्मीदवारी में सभी विपक्षी दल एक साथ आ सकते हैं.
इस पूरे घटनाक्रम में ममता बनर्जी एक फाइटर के रूप में साबित हुई हैं. पश्चिम बंगाल चुनाव में ममता बनर्जी ने अकेले मोदी और शाह का सामना किया और उनसे जीत गयी. यही नहीं, वह पिछली बार से ज़्यादा सीटों के साथ जीती हैं. मैंने कहा है कि कांग्रेस के बिना किसी तीसरे मोर्चे की कल्पना नहीं की जा सकती. मैं ये भी कहती हूं कि आप ऐसे किसी मंच से ममता को भी अलग नहीं रख पाएंगे. अगर वह ऐसे किसी मंच में केंद्रीय भूमिका में होती हैं तो यह उस मंच के भविष्य के लिए बेहतर होगा. क्योंकि ममता इस समय सिर्फ बंगाल तक सीमित नहीं हैं. उनकी चर्चा देश भर में हो रही है. वह एक राष्ट्रीय कद की नेता के रूप में देखी जा रही हैं.”
क्या शरद पवार हरकिशन सिंह सुरजीत बन सकते हैं?
ममता बनर्जी के रूप में विपक्षी दलों के रूप में भले ही एक जिताऊ उम्मीदवार दिख रहा हो लेकिन किसी भी ऐसे मोर्चे की सफलता के लिए एक किंग मेकर की ज़रूरत होती है.
सवाल ये उठता है कि क्या पवार इस दौर में वह कर सकते हैं जो हरकिशन सिंह सुरजीत ने नब्बे के दशक में कर दिखाया था.
राधिका रामाशेषन कहती हैं, “ऐसा करने के लिए शरद पवार को हरकिशन सिंह सुरजीत बनना होगा. क्योंकि नब्बे के दशक में वीपी सिंह थे जो लेफ़्ट, राइट, सेंटर से सबको एक साथ लेकर आए थे. यूनाइटेड फ्रंट के जमाने में हरकिशन सिंह सुरजीत थे जिन्होंने इसके लिए भारी मेहनत की. लालू यादव, मुलायम सिंह सबको एक साथ लेकर आना. कोई आसान काम नहीं था.
मुझे लगता है कि इस समय ये भूमिका शरद पवार जी को निभानी पड़ेगी. लेकिन क्या उनके लिए ऐसा करना संभव है. क्योंकि इसके लिए शारीरिक ऊर्जा की भी ज़रूरत होती है. आपको तमाम लोगों से मिलना पड़ेगा. बैठकें करनी होंगी.
एक बात ये भी है कि शरद पवार जी का वो क़द नहीं है जो कि हरकिशन सिंह सुरजीत जी का था. पहले तो पवार जी सुरजीत जी की तरह सबको डांट-डपट कर एक जगह बिठा नहीं सकते और दूसरा कि अगर वो डांटेंगे भी तो उनकी सुनेगा कौन. ऐसे में मुझे लगता है कि हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे नेता की कमी ऐसा मोर्चा खड़ा करने में एक बाधा भी है.”
लेकिन क्या तीसरे मोर्चे की कामयाब कोशिशों की तुलना वर्तमान कोशिशों से की जा सकती है जिनमें प्रशांत किशोर अहम भूमिका में नज़र आते हैं.