एकनाथ शिंदे की बगावत से शुरू हुआ शिवसेना में बिखराव लगातार जारी है। पिछले एक महीने में उद्धव ठाकरे को जितने झटके मिले हैं, शायद ही उन्हें पूरे राजनीतिक करियर में इतने झटके लगे हों। शिवसेना में हो रही टूट इस तरफ इशारा कर रही है कि उद्धव ठाकरे का अपने विधायकों और सांसदों पर से नियंत्रण कम हो रहा है। ये सब दर्शाता है कि उद्धव ठाकरे अपने पिता और पार्टी के संस्थापक दिवंगत बाला साहेब की विरासत को भुना नहीं पाए। आखिर उद्धव ठाकरे से कहां गलती हो गई? हालांकि अभी यह कहना जल्दबाजी होगा कि बाला साहेब की विरासत लुप्त हो रही है।
एकनाथ शिंदे ने बुधवार को चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटाया। शिंदे का यह वार उद्धव ठाकरे पर आखिरी दांव के रूप में माना जा रहा है। इससे पहले मंगलवार को शिंदे लोकसभा से उद्धव से प्रतिनिधित्व छीन चुके हैं। विधायकों के बाद पार्षदों और सांसदों का यूं शिंदे गुट में मिलना दर्शाता है कि राजनीतिक गलियारों में शिंदे के सामने उद्धव टिक नहीं पाए। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या उद्धव अपने पिता बाला साहेब की विरासत शिवसेना को आगे ले जा पाएंगे या नहीं?
जनता का समर्थन मिलेगा?
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि ठाकरे की विरासत उनके गुट में बनी रहेगी, लेकिन एकमात्र स्वामित्व नहीं रहेगा। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या शिवसेना सिर्फ कागजों पर ही रह जाएगी या उसे जनता का समर्थन हासिल होगा।
एकनाथ शिंदे को बड़ा झटका, लोकसभा में चुने शिवसेना नेता पर रेप का आरोप
शिवसेना के गढ़ ठाणे भी नहीं बचा पाए उद्धव
पिछले महीने शिवसेना विधायक दल में विभाजन हो गया था। उसके बाद उद्धव ठाकरे नीत शिवसेना को मंगलवार को एक और झटका लगा, जब लोकसभा में उसके 19 सदस्यों में से 12 ने मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के प्रति निष्ठा जताई और शिंदे गुट के शिवसेना सांसद राहुल शेवाले को लोकसभा में पार्टी का नेता चुना गया। शिवसेना का गढ़ माने जाने वाले ठाणे जिले के कुछ स्थानीय कार्यकर्ता भी शिंदे खेमे में शामिल हो चुके हैं।उद्धव से कहां गलती हुई?
एक राजनीतिक पर्यवेक्षक ने पीटीआई-भाषा को बताया कि 1966 में शिवसेना की स्थापना करने वाले बाल ठाकरे और उद्धव ठाकरे के बीच एक बुनियादी अंतर है। उन्होंने दावा किया, ‘‘पुत्र को पिता की विरासत स्वत: मिली क्योंकि पिता ने उन्हें (पुत्र को) नेतृत्व की भूमिका सौंपी। उद्धव ठाकरे ने अपना नेतृत्व स्थापित करने के लिए बहुत प्रयास नहीं किया। उन्होंने हर चीज को हल्के में लिया।’’
राणे और राज ठाकरे की बगावत रोकने बाला साहेब थे
उद्धव ठाकरे ने 2003 में शिवसेना का नेतृत्व संभाला और उन्हें तब से नारायण राणे और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के प्रमुख तथा अपने चचेरे भाई राज ठाकरे जैसे नेताओं के असंतोष का सामना करना पड़ा। उस समय बाल ठाकरे जीवित थे। राजनीतिक पर्यवेक्षक के अनुसार, “अपनी विरासत और पार्टी पर पकड़ खोने की परिणति पिछले महीने एकनाथ शिंदे के विद्रोह के रूप में दिखी जब बाल ठाकरे मौजूद नहीं थे।” बाल ठाकरे का नवंबर 2012 में निधन हो गया था।
भविष्य की भूमिका भ्रमित
एक्सपर्ट्स मानते हैं, ‘‘उद्धव ठाकरे से बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती है क्योंकि वह अपनी भविष्य की भूमिका को लेकर भ्रमित हैं। वह उन लोगों पर दोषारोपण करते रहे हैं जो उनसे अलग हो गए। लेकिन साथ ही वह उनकी वापसी का स्वागत भी करना चाहते हैं। वह सुलह या अलग होने के संबंध में अपना मन नहीं बना रहे।’’
इतने बड़े विद्रोह के बाद क्यों चुप है शिवसेना
एक अन्य राजनीतिक विश्लेषक ने कहा कि ठाकरे की विरासत के संबंध में अभी फैसला करना जल्दबाजी होगी क्योंकि शिवसेना के घटनाक्रम को अभी करीब एक महीना ही हुआ है। उन्होंने कहा, “पार्टी की संरचना और कामकाज को देखते हुए, यह घटनाक्रम अप्रत्याशित था। यह पता लगाना होगा कि बड़े पैमाने पर विद्रोह के बाद भी आम शिव सैनिक क्यों चुप हैं।”एक अन्य राजनीतिक टिप्पणीकार ने दावा किया कि शिवसेना में “ऊपर से नीचे तक विभाजन” अपरिहार्य है। उन्होंने कहा, “विद्रोही शिवसेना से बाहर नहीं जाना चाहते। वे पार्टी चाहते हैं और भाजपा चाहती है कि शिवसेना मातोश्री (मुंबई में ठाकरे परिवार का घर) से बाहर निकले।’’उन्होंने कहा, ‘‘उद्धव ठाकरे ने ऐसे समय पर पहली बार बड़े विद्रोह का सामना किया है, जब उनके पिता मौजूद नहीं हैं। ठाकरे की विरासत उनके गुट में बनी रहेगी, लेकिन एकमात्र स्वामित्व नहीं रहेगा।’’