मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव परिणामों में तो भाजपा ने चौंकाया ही। साथ ही उसने तीनों राज्यों में मुख्यमंत्री चेहरों का ऐलान करके भी चौंका दिया। शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह और वसुंधरा राजे सिंधिया जैसे दिग्गजों की मौजूदगी के बावजूद नए चेहरों पर भरोसा किया गया।
इसमें भी राजस्थान में तो पहली बार जीतने वाले विधायक की ताजपोशी कर दी गई। यह तो हो गई भाजपा की बात। अब अगर कांग्रेस का रुख करें तो वहां पर अभी भी पुरानी कहानी दोहराई जाती नजर आती है। चुनाव परिणामों के करीब दस दिन के बाद संभवत: कांग्रेस सोच रही होगी कि अगर उसने पहले ही कमलनाथ, गहलोत और बघेल की जगह नए चेहरों को आगे किया होता तो क्या परिणाम अलग होता?
पुराने चेहरों के भरोसे कब तक?
कहते हैं बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। तीन राज्यों में करारी हार से अगर कांग्रेस कुछ सीख लेना चाहती है तो इस बात का मर्म समझना होगा। असल में अभी भी तमाम राज्यों में कांग्रेस पुरनियों के ही भरोसे चल रही है। इनमें हरियाणा में भूपिंदर सिंह हूडा और उत्तराखंड में हरीश रावत जैसे नाम शामिल हैं। कर्नाटक में भले ही पार्टी ने जीत हासिल कर ली हो, लेकिन यहां भी उसके पास सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार ही विकल्प थे। हरियाणा में तो अगले साल चुनाव भी होने वाले हैं। अगर कांग्रेस को आने वाले समय में राजनीति में कुछ अलग करना हो तो उसे नेतृत्व परिवर्तन पर ध्यान देना होगा।
हिमाचल-तेलंगाना से कब सीखेगी
यह भी दिलचस्प है कि कांग्रेस के सामने हिमाचल और तेलंगाना का उदाहरण होने के बावजूद वह इनसे सबक नहीं ले सकी। हिमाचल में नए चेहरे सुखविंदर सुक्खू को मौका दिया था और वह चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री भी बने। इससे पहले यहां पर वीरभद्र सिंह 1983 में सीएम बनने के बाद, 1985, 1993, 2004 और 2012 भी बने रहे। हालांकि पंजाब में भी पार्टी ने कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाकर चरणजीत सिंह चन्नी को मौका दिया था। लेकिन यहां पर इस फैसले को इस तरह से लागू किया गया कि यह बहुत प्रभावशाली नहीं साबित हो सका। चन्नी विधानसभा चुनाव तो हारे ही, अपना सियासी करियर भी दांव पर लगा बैठे।
भाजपा ने ऐसे की ओवरहॉलिंग
अगर बात करें तो कुछ साल पहले भाजपा भी इसी तरह के हालात से गुजर रही थी। शिवराज सिंह पहली बार 2005 में सीएम बने थे। रमन सिंह तीन बार मुख्यमंत्री रहे चुके थे और वसुंधरा राजे सिंधिया भी दो बार इस ओहदे पर रह चुकी थीं। खुद नरेंद्र मोदी भी 2001 से 2014 तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे थे। लेकिन 2014 के बाद मध्य प्रदेश को छोड़कर भाजपा ने प्रदेश राजनीति में नए चेहरों को मौका देना शुरू कर दिया। इसके लिए कद्दावर नामों की भी परवाह नहीं की गई। हिमाचल प्रदेश में प्रेम कुमार धूमल को हटाकर जयराम ठाकुर को लाया गया। उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत, तीरथ सिंह रावत और अंतत: पुष्कर सिंह धामी सीएम बने। यहां पर बीसी खंडूरी, भगत सिंह कोश्यारी और रमेश पोखरियाल निशंक जैसे दिग्गज दरकिनार कर दिए गए। इसी तरह गोव में लक्ष्मीकांत पारसेकर, झारखंड में रघुबर दास और यूपी में योगी आदित्यनाथ भी सरप्राइज सीएम रहे।
कांग्रेस में जवाबदेही तक नहीं
अब सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस कुछ नए एक्सपेरिमेंट करेगी? क्या वह नई लीडरशिप की खेप तैयार करेगी? एक कांग्रेस नेता के मुताबिक भाजपा के पास प्रयोग करने की इच्छाशक्ति है। उन्होंने नए चेहरों को जिम्मेदारी दी। हालांकि गोवा में पारसेकर, झारखंड में दास, उत्तराखंड में त्रिवेंद्र और तीरथ नाकाम रहे। लेकिन कई नाम ऐसे भी रहे जो बतौर नेता उभरे। हालांकि देखने वाली बात यह है कि इसके बाद भी भाजपा लगातार भरोसा दिखा रही है। वह पार्टी में एक बड़ा संदेश भेज रही है कि कोई भी नेता बड़ी जिम्मेदारी का सपना देख सकता है। एक अन्य कांग्रेस नेता ने कहाकि हमारे यहां तो हार की जवाबदेही तक नहीं तय हो रही। कमलनाथ कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष थे। एक बार सीएम रह चुके थे, इसके बावजूद कोई जवाबदेही नहीं है।