ईरान के राष्ट्रपति हसन रुहानी के साथ तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन
सऊदी अरब और तुर्की की दुश्मनी ऑटोमन साम्राज्य से ही है जबकि दोनों सुन्नी मुस्लिम बहुल देश हैं. कहा जाता है कि दोनों के बीच मुस्लिम वर्ल्ड के नेतृत्व की होड़ भी है.
सऊदी अरब के पास मक्का और मदीना है तो तुर्की के पास विशाल ऑटोमन साम्राज्य की विरासत. इसराइल और फ़लस्तीनियों के बीच जारी टकराव को लेकर सऊदी अरब और तुर्की खुलकर फ़लस्तीनियों के समर्थन में बोल रहे हैं.
तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन सऊदी सरकार की तुलना में रोज़ फ़लस्तीनियों के समर्थन में ज़्यादा बोल रहे हैं. वो हर दिन तीन से चार बयान जारी कर रहे हैं और इस मुद्दे को लेकर इस्लामिक देशों के नेताओं से बात कर रहे हैं. राष्ट्रपति अर्दोआन ने बुधवार को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को भी फ़ोन किया और इसराइल को कड़ा सबक सिखाने की बात कही.
प्रथम विश्व युद्ध के पहले फ़लस्तीन ऑटोमन साम्राज्य का एक इलाक़ा था. ऐसे में अर्दोआन के बढ़-चढ़कर बोलने की एक ऐतिहासिक वजह यह भी है.
फ़लस्तीनियों को लेकर इस्लामिक देशों का विरोधाभास
लेकिन तुर्की की ओर से फ़लस्तीनियों के समर्थन के कुछ विरोधाभास भी हैं. सऊदी अरब का इसराइल के साथ राजनयिक संबंध नहीं है जबकि तुर्की का है. पिछले साल ट्रंप प्रशासन ने खाड़ी के देशों पर इसराइल से राजनयिक संबंध कायम करने का दबाव डाला था.
इसके नतीजे भी सामने आए थे. यूएई और बहरीन ने इसराइल से राजनयिक रिश्ते कायम कर लिए थे. इनके बाद सूडान और मोरक्को ने भी इसराइल से राजनयिक संबंध कायम करने का फ़ैसला किया था. सूडान और मोरक्को भी मु्स्लिम बहुल देश हैं.
ऐसा ही दबाव सऊदी अरब पर भी था. लेकिन सऊदी अरब ने ऐसा नहीं किया और कहा कि जब तक फ़लस्तीन 1967 की सीमा के तहत एक स्वतंत्र मुल्क नहीं बन जाता है तब तक इसराइल से औपचारिक रिश्ता कायम नहीं करेगा. सऊदी अरब पूर्वी यरुशलम को फ़लस्तीन की राजधानी बनाने की भी मांग करता है.
तुर्की यूएई और बहरीन की आलोचना कर रहा था कि इन्होंने इसराइल से राजनयिक संबंध क्यों कायम किए. ऐसा तब है जब तुर्की के राजनयिक संबंध इसराइल से हैं. तुर्की और इसराइल में 1949 से ही राजनयिक संबंध हैं. तुर्की इसराइल को मान्यता देने वाला पहला मुस्लिम बहुल देश था.
यहाँ तक कि 2005 में अर्दोआन कारोबारियों के एक बड़े समूह के साथ दो दिवसीय दौरे पर इसराइल गए थे. इस दौरे में उन्होंने तत्कालीन इसराइली पीएम एरिएल शरोन से मुलाक़ात की थी और कहा था कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम से न केवल इसराइल को ख़तरा है बल्कि पूरी दुनिया को है.
2010 में मावी मरमार वाक़ये के बाद से दोनों देशों के बीच कड़वाहट है. इस घटना में इसराइली कमांडो दस्तों ने तुर्की के पोत में घुसकर उसके 10 लोगों को मार दिया था. लेकिन इसके बावजूद दोनों देशों के में कारोबारी संबंध हैं. 2019 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 6 अरब डॉलर से ज़्यादा का था.
2010 के बाद से अर्दोआन के शासनकाल में तुर्की और इसराइल के संबंध तनातनी वाले ही रहे हैं.
फ़लस्तीनियों के हथियारबंद इस्लामिक चरमपंथी समूह हमास को अमेरिका और ईयू ने आतंकवादी संगठन के तौर पर लिस्ट किया है जबकि तुर्की इसे राजनीतिक आंदोलन की तरह देखता है. पश्चिम के देश तुर्की को उसकी ज़मीन पर हमास की मौजूदगी को लेकर चेतावनी देते रहे हैं.
सऊदी अरब और हमास के रिश्ते भी उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं. 1980 के दशक में हमास के बनने के बाद से सऊदी अरब के साथ उसके सालों तक अच्छे संबंध रहे. 2019 में सऊदी अरब में हमास के कई समर्थकों को गिरफ़्तार किया गया था. इसे लेकर हमास ने बयान जारी कर सऊदी अरब की निंदा की थी. हमास ने अपने समर्थकों को सऊदी में प्रताड़ित करने का भी आरोप लगाया था. 2000 के दशक में हमास की क़रीबी ईरान से बढ़ी.
खाड़ी के देशों में भारत के राजदूत रहे तलमीज़ अहमद कहते हैं कि हमास एक सुन्नी इस्लामिक संगठन है जबकि ईरान शिया मुस्लिम देश लेकिन दोनों की क़रीबी इस्लामिक राजनीति की वजह से है. अहमद कहते हैं कि ईरान के क़रीब होने के बावजूद इससे हमास को कोई फ़ायदा नहीं होता है.
हमास और ईरान की क़रीबी
ईरान से क़रीबी के कारण सऊदी अरब से हमास की दूरी बढ़ना लाज़िम था क्योंकि सऊदी अरब और ईरान के बीच दुश्मनी है. ऐसे में हमास किसी एक का ही क़रीबी रह सकता है.
इसराइल का जितना खुला विरोध ईरान करता है, उतना मध्य-पूर्व में कोई नहीं करता है. ऐसे में हमास और ईरान की क़रीबी स्वाभाविक हो जाती है.
2007 में फ़लस्तीनी प्रशासन के चुनाव में हमास की जीत हुई और इस जीत के बाद उसकी प्रासंगिकता और बढ़ गई थी.
लेकिन हमास और सऊदी अरब के रिश्ते भी स्थिर नहीं रहे. जब 2011 में अरब स्प्रिंग या अरब क्रांति शुरू हुई तो सीरिया में भी बशर अल-असद के ख़िलाफ़ लोग सड़क पर उतरे. ईरान बशर अल-असद के साथ खड़ा था और हमास के लिए यह असहज करने वाला था.
इस स्थिति में ईरान और हमास के रिश्ते में दरार आई. लेकिन अरब क्रांति को लेकर सऊदी अरब का रुख़ मिस्र को लेकर जो रहा, वो भी हमास को रास नहीं आया.
सऊदी अरब मिस्र में चुनी हुई सरकार का विरोध कर रहा था. ऐसे में फिर से हमास की तेहरान से करीबी बढ़ी.
2019 के जुलाई में हमास का प्रतिनिधिमंडल ईरान पहुँचा और उसकी मुलाक़ात ईरान के सर्वोच्च नेता अयतोल्लाह अली ख़ामेनेई से हुई थी. सऊदी अरब में हमास के नेताओं को मुस्लिम ब्रदरहुड से भी जोड़ा जाता है.
इसराइल और हमास के बीच अभी हिंसक संघर्ष चल रहा है और इसमें अब तक 67 लोगों की मौत हुई है, जिनमें 14 बच्चे हैं. इस बीच हमास ने मध्य पूर्व के प्रतिद्वंद्वी देश ईरान और सऊदी से एकता बनाने की अपील की है.
हमास के एक प्रवक्ता ने न्यूज़वीक से कहा है, ”इसराइल ने अल अक़्सा मस्जिद का अपमान किया है. इसलिए हम रॉकेट दाग रहे हैं. वे पूर्वी यरुशलम से फ़लस्तीनी परिवारों को निकालना चाह रहे हैं. अल अक़्सा मुस्लिम जगत के लिए तीसरी सबसे पवित्र जगह है और फ़लस्तीन के लिए सबसे पवित्र जगह. हमें उम्मीद है कि सऊदी अरब और ईरान आपसी मतभेद भुला देंगे. अगर ऐसा होता है तो फ़लस्तीनियों के लिए बहुत अच्छा होगा.”
इस्लामिक देश कुछ कर पाएंगे?
क्या वाक़ई इस्लामिक देश फ़लस्तीनियों को लेकर आपसी मतभेद भुला देंगे? क्या इस्लामिक देशों की एकता से इसराइल थम जाएगा?
खाड़ी के कई देशों में भारत के राजदूत रहे तलमीज़ अहमद कहते हैं, ”1967 से पहले फ़लस्तीन और इसराइल समस्या अरब की समस्या थी लेकिन 1967 में अरब-इसराइल युद्ध में इसराइल की जीत के बाद से यह केवल इसराइल और फ़लस्तीन की समस्या रह गई है. अगर इसे कोई हल कर सकता है तो वे इसराइल और फ़लस्तीनी हैं.”
तलमीज़ अहमद कहते हैं, ”इस्लामिक देशों की प्रतिक्रिया दिखावे भर से ज़्यादा कुछ नहीं है. ज़्यादातर इस्लामिक देश राजशाही वाले हैं और वहां की जनता का ग़ुस्सा जनादेश के रूप में आने का मौक़ा नहीं मिलता है. ऐसे में वहाँ के शासक फ़लस्तीनियों के समर्थन में कुछ बोलकर रस्मअदायगी कर लेते हैं. जहाँ तक तुर्की की बात है तो अर्दोआन ने बाइडन के आने के बाद इसराइल के साथ संबंध सुधारने की कोशिश की. वे राजदूत भेजने को भी तैयार थे लेकिन इसराइल ने कुछ दिलचस्पी नहीं दिखाई. इसराइल के ख़िलाफ़ हाल के दिनों में अर्दोआन ने बहुत ही आक्रामक बयान दिए हैं.”
तलमीज़ अहमद कहते हैं कि तुर्की या सऊदी अरब से इसराइल का कुछ भी नहीं बिगड़ने वाला है और अगर कोई दख़ल दे सकता है तो वो अमेरिका है लेकिन वहाँ की दक्षिणपंथी लॉबी इसराइल के समर्थन में मज़बूती से खड़ी है.
तलमीज़ अहमद कहते हैं, ”सऊदी अरब के आम लोगों की सहानुभूति फ़लस्तीनियों के साथ बहुत ही मज़बूत है. ऐसे में सऊदी शाही परिवार पर अप्रत्यक्ष रूप से आम लोगों का दबाव रहता है और इसी का नतीजा होता है कि वहाँ का विदेश मंत्रालय एक प्रेस रिलीज जारी कर देता है. ईरान ख़ुद को क्रांतिकारी स्टेट मानता है, इसलिए वो फ़लस्तीनियों के समर्थन में बोलता है और इस्लामिक वजहों से हमास का समर्थन करता है. हालांकि हमास को सारी मदद तुर्की और क़तर से मिलती है.”
फ़लस्तीनियों के समर्थन में इस्लामिक देशों के संगठन ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन यानी ओआईसी ने भी बयान जारी किया है लेकिन कई लोग मानते हैं कि ओआईसी सऊदी अरब के हितों को पूरा करने वाला संगठन है.
तुर्की, पाकिस्तान, ईरान और मलेशिया ने 2019 में इसके समानांतर एक संगठन खड़ा करने की कोशिश भी की थी. ओआईसी के बयान को भी किसी भी वैश्विक या क्षेत्रीय संकट में रस्मअदायगी से ज़्यादा नहीं देखा जाता है.
पाकिस्तान में भी आम लोगों का समर्थन फ़लस्तीवनियों के प्रति होता है ऐसे में कोई सरकार आम लोगों और वहां के इस्लामिक संगठनों को नाराज़ नहीं करना चाहती है.