काबुल एयरपोर्ट पर उस वक्त विस्फोट हुआ जब दुनिया की निगाहें वहां पर लगी हुई हैं, जहां हज़ारों अफगान घबराए से भीड़ लगाए देश से बाहर निकलने के लिए आस बांधे बैठे हुए हैं. ये आत्मघाती हमला बताता है कि 20 साल पहले जो बात अमेरिका के अफगानिस्तान को नियंत्रण में लेने के बाद से आम थी वो तालिबान के कब्जे में देश आने के बाद भी इतिहास नहीं बनी है. उधर देश से नए इस्लामिक शासक का कहना है कि अफगान की धरती को आतंकी गतिविधियों का शिकार नहीं होने देंगे.
आइए उन समूहों पर एक नज़र डालते हैं जिनके प्रति तालिबान का लगाव और झुकाव हमेशा से संदेह के घेरे में रहा है.
तालिबान का आतंकी समूहों से क्या संबंध
अमेरिका ने अफगानिस्तान पर जो हमला किया था उसकी वजह तो याद होगी ही, 2001 में अलकायदा इस देश को अपने बेस की तरह इस्तेमाल कर रहा था और यहां पर ही इस आतंकी संगठन के नेता ओसामा बिन लादेन को तालिबान सरकार ने शरण दी थी.
अमेरिकी सेना ने जब तेजी से तालिबान को यहां से हटाया और इसके लड़ाके भाग कर पाकिस्तान चले गए औऱ वहीं कहीं छिप गए, तब अमेरिका की महत्वकांक्षी योजना थी देश का पुनर्निर्माण. इसी दौरान जब वह अमेरिकी सेना के खिलाफ युद्ध की साजिश रच रहे थे, तब तालिबान को यह अच्छे से समझ आ गया था कि उसे अलकायदा और दूसरे आतंकी समूहों के साथ सबंध बनाए रखना होगा. लेकिन करीब 20 साल की लड़ाई के बाद, जब अमेरिका का नेतृत्व डोनाल्ड ट्रंप के हाथ में आया तो वो अफगानिस्तान को छोड़ने को राजी हो गए.
उस दौरान उन्होंने तालिबान से एक वादा लिया कि वो इसी शर्त पर देश छोड़ेंगे कि अफगानिस्तान की ज़मीन पर किसी तरह की कोई आतंकी गतिविधि को अंजाम नहीं दिया जाएगा. तालिबान ने इस शर्त को सहर्ष स्वीकार कर लिया था. हालांकि शैतान की नीयत आसानी से समझ नहीं आती है. लेकिन दिखाने के लिए तालिबान ने फरवरी में सभी विदेशी आतंकी लड़ाकों पर प्रतिबंध लगा दिया. हालांकि ऐसा कहा गया कि तालिबान का रवैया सुसंगत नहीं रहा और विदेशी आतंकी लड़ाकों के प्रति साफ तौर पर झुकाव दिखा खास तौर पर आईएस और टीटीपी. यही नहीं तालिबान का जेलों को खाली करने और सभी की सजा माफी की घोषणा के बाद हज़ारों लड़ाके अपने आतंकी समूह में पहुंच गए होंगे.
अफगानिस्तान में अल कायदा की उपस्थिति के मायने
सबसे पहले तालिबान अपने शीर्ष नेतृत्व के बीच हक्कानी नेटवर्क के सदस्य को रख सकता है, जो अमेरिका द्वारा घोषित आतंकी समूह है जिसका प्रमुख सिराजुद्दीन हक्कानी पर अलकायदा के साथ संबंध होने के आरोप हैं. यूएन की इस साल जून में आई रिपोर्ट के मुताबिक तालिबान और अलकायदा के घनिष्ठ संबंध हैं और दोनों में किसी भी तरह की संबंध विच्छेद के कोई संकेत नहीं मिले हैं. रिपोर्ट में बताया गया है कि संघर्ष में साझेदारी और शादी के चलते ये संबंध और प्रगाढ़ हो गए हैं.
आगे बताया गया है कि सिराजुद्दीन हक्कानी अलकायदा के व्यापक नेतृत्व का सदस्य माना जाता है, हालांकि वो अलकायदा के मुख्य नेतृत्व का हिस्सा नहीं है. हक्कानी नेटवर्क तालिबान का हिस्सा होने के बावजूद अपनी खुद के कामों को अंजाम देता है और इसके पाकिस्तानी सेना की गुप्तचर संस्था के साथ घनिष्ठ संबंध हैं. इसके पाकिस्तान और अफगानिस्तान दोनों जगह पर ठिकाने हैं. लेकिन अमेरिका की कांग्रेसनल रिसर्च सर्विस (सीआरएस) की रिपोर्ट बताती है कि अलकायदा पर किए गए हवाई हमले और छापे जिसमें 2015 में कंधार प्रांत के बड़े प्रशिक्षण केंद्र,भी पाए गए थे, उनसे पता चलता है कि अफगानिस्तान में अलकायदा की मौजूदगी में कमी आई है. अमेरिकी सुरक्षा विभाग की अप्रैल 2021 की अफगानिस्तान में अलकायदा के प्रमुख नेताओं की उपस्थिति के अनुमान पर जारी रिपोर्ट बताती है कि उनसे सीमित खतरा रह गया है क्योंकि उनका ज्यादा ध्यान खुद को बचाए रखने तक ही सीमित हो चुका है.
यूएन का अनुमान हालांकि बहुत उम्मीद से भरा हुआ नहीं है लेकिन उससे ये पता चलता है कि तालिबान ने विदेशी आतंकी लड़ाकों के बारे में सूचना इकट्ठी करके अलकायदा पर लगाम कसी है और वो उन पर पाबंदी लगा रहा है. हालांकि अलकायदा और उसकी जैसी सोच वाले मिलिटेंट अफगानिस्तान में तालिबान की जीत पर जश्न मना रहे हैं क्योंकि वह भी उनकी तरह वैश्विक कट्टरवाद का समर्थक है.
इस्लामिक स्टेट की मौजूदगी कितनी दमदार
काबुल में हुआ हमला जिसमें तालिबान और अमेरिकी सेना के लोगों सहित 100 से ज्यादा लोगों की जान गई है, उसकी जिम्मेदारी इस्लामिक स्टेट ने ली है जो 2015 से अफगानिस्तान में मौजूद है. जिसे इस्लामिक स्टेट खोरासन प्रांत (आईएसकेपी) के नाम से जाना जाता है. अफगानिस्तान में हुए कई भयानक हमलों में इसका हाथ माना जाता है खासकर शिया मुस्लिम आबादी पर जो हमले हुए हैं.
सीआरएस की रिपोर्ट कहती है कि आईएसकेपी जिसे आईएसआईएस-के के नाम से भी जाना जाता है का ठिकाना पूर्वी अफगानिस्तान में था. मुख्यतौर पर नान्गरहार प्रांत जो पाकिस्तान की सीमा से लगा हुआ है और विशेषतौर पर पूर्व तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) का गढ़ रहा है, जिसे इन्होंने 2014 के मध्य में पाकिस्तानी सेना के ऑपरेशन के बाद छोड़ दिया था.
सीआरएस और यूएन दोनों की रिपोर्ट बताती है कि अमेरिकी और अफगान सेना के साथ तालिबान ने भी आईएसकेपी को लगभग समाप्त कर दिया था. लेकिन ये समूह फिर से मुंह उठा रहा है और अफगानिस्तान के लिए एक खतरा साबित हो सकता है जबकि अफगानिस्तान दशकों पहले की लड़ाई को छोड़ना चाहता है. सीआरएस की रिपोर्ट बताती है कि अमेरिकी अधिकारियों ने चेताया कि आइएसकेपी एक खतरा बना हुआ है और उनका हालिया हमला बताता है कि उनका तरीका ठीक वैसा ही जैसा पहले दबाव बनाने के लिए वो इस्तेमाल करते थे.
इस समूह मे करीब 2000 लड़ाके हैं. इनमें से मुख्यतौर पर पूर्वी अफगानिस्तान से ज्यादा हैं और कुछ उत्तरी अफगानिस्तान से भी है. हालांकि 2016 में अफगानी सेना की दबिश और अमेरिकी हमले में इनके नेतृत्व के मारे जाने के बाद इन्हें उठने में बहुत मुश्किल हुई है. ऐसा कहा जा रहा है कि अब यह विकेंद्रीकृत तरीके से काम कर रहा है जिसमें पूरे देश में इसके सेल और छोटे समूह मौजूद हैं जो एक ही विचारधारा को साझा करते हुए स्वायत्त तरीके से काम कर रहे हैं.
तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान क्या है
जिसे पाकिस्तानी तालिबान के नाम से जाना जाता है. ये समूह पिछले दो दशक से सक्रिय है और पाकिस्तान के कई चरमपंथी समूहों का समर्थन करता है जिनका पाकिस्तान सरकार के साथ हमेशा विरोध रहा है. हालांकि यूएन की रिपोर्ट बताती है कि इसके मुख्य उद्देश्य पाकिस्तान विरोध रहा है, ऐसा भी देखा गया है कि इन्होंने अफगान सेना के खिलाफ अफगान तालिबान सेना का समर्थन किया था. ऐसा कहा जाता है कि टीटीपी 2013 के आसपास बिखरना शुरू हो गया था. तब कुछ टीटीपी के सदस्यों ने इस्लामिक स्टेट की वफादारी की कसम खाई थी कि पूर्वी अफगानिस्तान में ठिकाना बना कर पाकिस्तानी सेना पर ऑपरेशन चलाते रहे. यूएन की रिपोर्ट बताती है कि टीटीपी के कुछ बिखरे समूह दिसंबर 2019 से अगस्त 2020 में अलकायदा के साथ मिल चुके हैं. ऐसा माना जाता है कि टीटीपी के पास 2500 से 6000 सशस्त्र लड़ाके मौजूद हो सकते हैं. तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जा करने और जेलों से टीटीपी कैदियों के छूटने का उन्हें फायाद मिल सकता है.
अफगानिस्तान के अन्य आतंकी समूह
सीआरएस और यूएन ईस्टर्न तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट की ओर भी संकेत करता है जिसके सैकड़ों सदस्य हैं. इसका ठिकाना मुख्यतौर पर उत्तरी बदख्शान और अफगानिस्तान के पड़ोसी प्रांत है. इस समूह का मुख्य उद्देश्य चीन के झिनजियांग में उइघुर राज्य की स्थापना करना है. और ये अफगानिस्तान से चीन लड़ाकों की आवाजाही को सुविधाजनक बनाता है. चीनी नेतृत्व ने तालिबान से जो संपर्क स्थापित किया है, इसने समूह से ईटीआईएम को अलग करने और अफगान की जमीन को चीनी विरोध की जमीन बनने से रोकने के लिए कहा है.
इसी तरह का एक और संगठन है इस्लामिक मूवमेंट ऑफ उज्बेकिस्तान (आईएमयू) जिसमें करीब 700 लोग हैं जिसमें लड़ाकों के परिवार के सदस्य भी हैं. घोषित आतंकी समूह जिसका कभी अलकायदा के साथ गहरा नाता था और इसने तालिबान के साथ मिलकर मध्य एशिया राज्यों पर कई हमलों को अंजाम भी दिया था. यूएन की रिपोर्ट बताती है कि आईएमयू पूरी तरह से तालिबान के नियंत्रण में है.